Thursday 2 April 2015

मन

मन मानना ही नहीं चाहता कभी दिमाग की बात, थामना ही नहीं चाहता अपनी उड़ान को, यह नटखट मन क्या कुछ करने को नहीं मचलता| सदा ही जवान और मस्तमौला रहने वाला यह मन शायद कभी उम्रदराज़ भी नहीं होता| ऐसा लगता है कि जैसे अपने डर को ठेंगा सा दिखलाता हुआ यह, आज भी, अपनी उड़ान कम करने को कतई तैयार नहीं है, ठीक उसी तरह जिस तरह अठ्ठारह वर्ष पूर्व लिखी इन पंक्तियों से प्रतीत होता है कि मन की चंचलता कैसी थी| सपनो कि सुन्दर सी दुनिया में विचरते इस मन का तर्कों से कोई नाता नहीं|
मन के पंखों को परवाज़ देती मेरी यह पंक्तियाँ किसी सन्दर्भ कि याद तो नहीं दिलाती पर इतना जरूर जताती हैं कि न मन पर वश तब था न ही अभी है, और कहीं न कहीं हम सब का मन ऐसा ही होता है....है न ?

मन


 चंचल पखेरू इस मन के, पकड़ से मेरी परे हैं... सपने इनके सुनहरे, बारहों मास हरे हैं... उड़ें जा पहुँचे वहां, छिपी हैं मेरी चाहते जहाँ ... जो हैं निराधार, पर मन ये बावरा, कर देता इन्हे साकार... मन ये मरीचिका है, इसका मुझे पता है...

 पर उड़ाने मन कि ये बेहद, लगती हैं बड़ी सुखद... डर है तो बस यही, कि मन ये मेरा कहीं... हो न जाये निर्बल, अंततः गिर न जाये, मुहं के बल||






Copyright - Vindhya Sharma
Sketch courtesy - Cartoonzy


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