Saturday 11 April 2015

मोदी से नाराज़ हूँ

कई बार मन की भावनाओं को भूमिका की आवश्यकता नहीं होती, क्यूँकि कई भाव स्वाभाविक  तरीके से ही व्यक्त हो जाते हैं... बिना किसी स्पष्टीकरण के...ठीक उसी तरह जिस तरह मेरी नाराजगी से भरी हुई यह पंक्ति.


 

मोदी से नाराज़ हूँ

तेरे वाचन से आश्वासन से, दिल होता बड़ा प्रभावित है...
बस प्रसाद अब मिलने को है, रोम रोम आशान्वित है...

दिखता कुछ खास नहीं, पर फिर भी मन ये मान रहा...
अच्छे दिनों की खिचड़ी को, तू धीरे धीरे रांध रहा ...

पर, पैदा की यह क्या उलझन नई...
अब तो मेरी भी भृकुटि तन गई...

जा मुकुट उसके हवाले किया, जो दुश्मन का गुणगान करे...
क्यों, उससे हाथ मिला लिया, जो ना तिरंगे का मान धरे...

अनेक प्रयास-विचार किये, मन को कितने सुझाव दिए...
पर फिर भी बात न जंच रही..
इस अजब निर्णय की कोई भी...
तक़रीर अब न पच रही...

खूब मनन मंथन के बाद, स्वीकार कर रही आज हूँ...
चाहे दलील कुछ रही हो, पर मै मोदी से नाराज़ हूँ||




Copyright-Vindhya Sharma


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